अट्टाहास करती तुम,
निरीह सा खड़ा मैं।
तेरे चुनौतियों के समक्ष,
बेसुध सा पड़ा मैं।
पल प्रतिपल हुंकार भरती,
मानस चित्त में टंकार करती।
तुझसे संघर्ष की मुद्रा में,
बस धरा का धरा मैं।
बेसुध सा पड़ा मैं।
पुनः संचित कर आत्मबल,
एकीकृत कर के नभ-तल।
तेरा सामना करने को,
और एक बार अड़ा मैं
बारम्बार खड़ा मैं।
© अनंत महेन्द्र