Saturday 3 July 2021

विरह-गीत

 विरह-गीत


कोलाहल कलरव है कैसा, कैसी ये आतुरता छाई।

क्यों मेघ विकल उमड़े जाते, क्यों मद्धम सी है अरुणाई।

ये अंतस कैसा भँवर उठा, क्यों नेत्र सजल हो आए हैं।

क्या विरहा की अग्नि की लपटें, मेरे हिस्से भी आई।



शाखों में अपना नीड़ त्याग पंछी क्या निर्वासित होता।

क्या मन की कोई पीड़ कहे, ये भाव न अनुमानित होता।

अब पूछ वियोगी सारस से जीवन का, निरुत्तर न करो।

कैसे दर्शा दे प्रेम कोई जब प्रेम न परिभाषित होता।


नाप सका क्या जग में कोई स्याह तमस की गहराई।

क्या विरहा की अग्नि की लपटें, मेरे हिस्से भी आई।



हमने रिश्तों की माला को रिस-रिस कर स्वयं पिरोया था।

एक प्रेम के पौधे के जड़ को अश्रु से स्वयं भिगोया था।

फिर जाने कैसी चूक हुई माला टूटी, पौधा उखड़ा।

दीवारें मौन रही साखी दिल कमरे में जब रोया था।


क्यों क्षुब्ध हुआ जीवन संगीत क्यों मौन हुई है शहनाई।

क्या विरहा की अग्नि की लपटें, मेरे हिस्से भी आई।


                                    ✍️  अनंत महेन्द्र

मुक्तक

  हमने सूनी नज़्में सारी रातों में लिख डाली।

जज्बातों की किस्मत बातों बातों में लिख डाली।

युग-युग से जो अक्षर-अक्षर थे मन के कोने में।

अश्रु की बूंदों से उसके हाथों में लिख डाली।

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मुखमंडल को देखा मैंने, आभा देख नहीं पाया।

क्षण में जाने कहाँ गयी वो, ज्यादा देख नहीं पाया।

राह भटककर केश झटककर, एक पता पूछा मुझसे।

आँखों में उलझा बैठा मुख सारा देख नहीं पाया।

                  

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प्रेम के तन्हा सफर में यूँ अकेले चल रहे हैं।

हम अमावस में किसी जूगनू की भाँति जल रहे हैं।

हाथ अपना खींचकर रिश्ते से रिश्तों के शिखर पर,

चढ़ चुके वो हम हजारों की नज़र से ढल रहे हैं।


            ✍️ अनंत महेन्द्र