Tuesday 20 March 2018

ग़जल


हमें कुछ भेड़ियों की खून की आदत नहीं दिखती।
हमें तब बेटियों पर आ रही आफत नहीं दिखती।

ये खतरे से नहीं खाली किसी पर यूँ भरोसा हो।
नकाबी नक्श के पीछे हमें सूरत नहीं दिखती।

किसी की शख़्सियत का बैठ अंदाज़ा लगाना मत।
किसी के शक्ल के पीछे छिपी फ़ितरत नहीं दिखती।

निगल जाते डकारे बिन सभी अज़गर जरा बचना।
अगर है चुप समंदर तो हमें जुर्रत नहीं दिखती।

किसी की कोशिशों का तुम जरा सम्मान कर लेना।
कि छोटी चींटियों में भीम सी कुव्वत नहीं दिखती।

सुनो ये मिल्कियत रह जायेगी मट्टी सरीखी ही।
खुदा को आदमी में दौलती मूरत नहीं दिखती।

                                            अनंत महेन्द्र

मुक्तक

मुक्तक:

अब न पनिहारिनें मटकी उठाती है।
ना वो कभी कपड़े सुखाने छत पे आती है।
नवजात गोद में है और हाथ में मोबाईल।
मॉडर्न तरीके से माएँ ममता लुटाती है।

दूजे माले में क्या हुआ, मुझको पता नहीं।
काका बगल के न रहे, मुझको पता नहीं।
एक वक्त था बस्ती में सबको जानता था मैं।
भाई का वक्त है बुरा, मुझको पता नहीं।

Wednesday 10 January 2018

आँखों में पानी रहे न रहे...ग़ज़ल

212   212   212   212
दो कदम संग तेरे मुहब्बत चलूँ ,
और  कोई  कहानी रहे ना रहे।

साँस थम जाये मेरी मुझे ग़म नहीं,
फिर  भले  ज़िन्दगानी  रहे  ना  रहे।

दिल मे छप जाये तेरे निशाँ प्यार का,
और   कोई   निशानी  रहे  ना  रहे।

वाहवाही ग़ज़ल को मिले तुझसे जो,
फिर  ये  जोशे-रवानी  रहे  ना  रहे।

चंद नग़्में सुनो मेरे दिल की जरा,
जाने फिर ये ज़ुबानी रहे ना रहे।

आ लकीरें मिला ले जबीं(मस्तक,माथा) की अभी,   
जाने फिर ये जवानी रहे ना रहे।

बूँद बह जाने दे मेरे अश्कों के भी,
जाने आँखों मे पानी रहे ना रहे।
                   ©अनंत महेन्द्र

मुक्तक

मुक्तक:
जहर जो जातिवादी घुल रहा अपने बसर में भी
जला देगा बहुत है आग इसके इक असर में भी
सियासत जब लगे मिलने जहर के इन सपोलों से,
समझ लो आ गया मतदान अब अपने शहर में भी।
        ©अनंत महेन्द्र

मुक्तक:
सियासत ने अगर दी मात तो स्वीकार कर लेना।
कहीं टूटा अगर विश्वास तो इसरार कर लेना।
मगर गहरे हुए जो घाव तो चुपचाप ना रहना।
कलम की धार जिंदाबाद तुम प्रतिकार कर लेना।
         © अनंत महेन्द्र

  
मुक्तक:
कहाँ को जा रहा इंसा कहाँ तक जा रहा इंसा
कभी इक दामिनी सी पुष्प को मुरझा रहा इंसा।
यहाँ बाबा मदरसे मौलवी के कर्म काले हैं।
अधर्मी बन चला हैवानियत को पा रहा इंसा।
                                  ©अनंत महेन्द्र
                                    ६/०१/२०१८