Sunday 17 December 2017

आँखों में पानी रहे न रहे...

दो कदम ऐ मुहब्बत तेरे संग चलूँ ,
और कोई कहानी रहे न रहे।

साँस रुक जाए धड़कन की तो ग़म नहीं,
फिर भले जिंदगानी रहे न रहे।

दिल में छप जाए तेरे निशां प्यार की,
और कोई  निशानी रहे न रहे।

बस गुज़र जाए कुछ वक़्त सोहबत में तेरे,
रात कोई सुहानी रहे न रहे।

वाहवाही ग़ज़ल को मिले तुझसे जो,
दुनिया मेरी दीवानी रहे न रहे।

आ लकीरें मिला लें माथे की अभी ही,
फिर ये चेहरा नूरानी रहे न रहे।

चंद गीतों को सुनने की मोहलत भी दे दो,
जाने कब ये ज़ुबानी रहे न रहे।

थोड़े अश्कों की बूँदे बह जाने दे मेरे,
जाने आँखों में पानी रहे न रहे।

      
                    ®© अनंत महेन्द्र
                        १५/१२/२०१७

Tuesday 1 August 2017

कश्मीर की झाँकी

एक दिन मेरे कमरे में
  घुस गए साँप चार..
कश्मीरी पण्डितों सा
  बाहर निकला परिवार..
इसी बीच बहुत से लोग
   जमा हो गए..
आनन फानन में पुलिस
   और सेना इत्तला हो गए..

अब मैं खुश था कि सेना
  पल भर में इनको भगा देगी..
पर पशुप्रेमी मंत्री ने चेताया कि
  चली गोली तो केस लगा देगी..
मजबूरन बन्दूक फेंक
  सेनावाले ढेला चलाने लगे..
भागे नहीं साँप, जहर फेंकने को
  अपना फन फैलाने लगे..

बोले कुछ पड़ोसी भाई
  इनको क्यों भगा रहे हो..
छोटी सी बात का यूँ
  बतंगड़ क्यों बना रहे हो..
चंद घण्टे में ही बात, वन की
  ज्वाला सी फैलने लगी..
तेजी से चलने वाले दस
  चैनलों में खबर चलने लगी..

कहने लगे मीडिया वाले,
  जहर नहीं, साँप भी देखो..
बिंदी वाली संगठन बोली,
  मानवाधिकार तो सीखो..
इतने में एक सिपाही ने
  पैलेट गन चला दिया..
मारा गया था अभी एक ही साँप
  घटना ने पूरा संसद हिला दिया..

एक विपक्षी नेता ने संसद में
साँपो की व्यथा-कथा सुनाई..
थोड़े दिनों पश्चात् ही सर्वोच्च
  न्यायालय ने भी सहमति जताई..
मैं बेबस, असहाय यूँ ही
  घर के बाहर खड़ा रहा..
और मेरे स्वर्ग से आशियाने में
  साँप कुण्डली जमाये पड़ा रहा..

इतने में जो मेरा पड़ोसी मेरे
  घर पर नजरें जमाये बैठा था..
आ गया साँपों से मिलने, हाथों में
  मेढ़क और दूध का कटोरा था..
झाँसा मिला मुझे, अब मेरा घर
  उसी पड़ोसी के कब्जे में था..
नेताओं ने दी उसे ही शाबाशी,
  मैं निरीह तो बस सदमे में था..

हताश-निराश पछताता मैं
अनवरत दिन-रात रोता..
न देखने पड़ते ये दिन, ग़र सांपों को
खुद लाठी से कुचला होता..
                   "अनंत" महेन्द्र

वृद्धाश्रम

जो कभी तुझे उंगलियाँ पकड़कर,
   सारी राह चलाता था।
तेरी छोटी-बड़ी ख्वाइशों के लिए,
   पूरे माह कमाता था।
जो खुद कभी भूखा सो जाता पर,
  तेरे टॉफियाँ लाता था।
तेरी एक हँसी मुस्कान देखने,
थककर भी घर वापस आता था।

तेरे बीसियों एक से प्रश्नों के,
   जवाब वो हर बार देते थे।
तेरी हर जिद पूरी करने को,
   सर्वस्व वार देते थे।
जिसके हर एक शब्द में,
    कोई न कोई सबक होती है।
आज उनकी नेक सलाह भी,
    तुम्हें बकबक लगती है।

आज जब तुम खुद बड़े हो गए,
  पाँव पर अपने खड़े हो गए।
टूटी झोपड़ी अब मकान हो गया,
   पैसों पे तुम्हें अभिमान हो गया।
पिता के ईलाज के पैसों को,
    कहते हो नुकसान हो गया।

दो रोटी ही तो ज्यादा लगता है।
अरे वो तेरे बच्चों का दादा लगता है।
थोड़ा ही सही तुम ध्यान धरो।
उनके अनुभवों का सम्मान करो।
बस इतना ही तुम कर्म करो।
कि वृद्धाश्रम न फोन करो।
                   ©   अनंत महेन्द्र

Sunday 30 July 2017

कलम की चाह

सुनो,बड़े दिनों से कुछ लिखा नहीं,
लिख दूँ क्या, तुम पर ही।
कूची का कलाकार तो नहीं,
कि बैठा रखूँ तुझे, सामने के सोफ़े पर।
पर मन तो चाहता है कि,
कलम मेरी जब-जब चले,
कुछ शब्द लिखे, जब भाव गढ़े।
तब लटें तेरी देख लिखूँ।
तेरे हाथ रहे ठोड़ी पर जब,
सिलवटें देख-देख लिखूँ।
तुम बैठे हुए थक जो जाओगी,
और कितनी देर! पूछ-पूछ उक्ताओगी।
मैं बहाने कर मुस्कुरा जाऊँ।
फिर चंद पंक्तियों की कविता सुनाऊँ।
फिर तुम ज़िद करो जाने की,
और मैं दूसरी कविता बनाने की।
सुनो, बडी देर से कुछ लिखा नहीं,
लिख दूँ क्या, फिर तुम पर ही।
                   © अनंत महेन्द्र
                       ३१/०७/२०१७

Saturday 15 July 2017

तेरी याद में

तेरी कमी से ख़ामोश दीवारों दरख़्त
परदे झाँकते अहाते की ओर हर वक्त
कालीन सिलवटों में उलझी ही रही
काँटे घड़ी की अटकी रहती कम्बख़्त

दरवाजे की घंटी जैसे रुष्ठ हो मुँह बना रही
तेरी प्यारी टीवी रिमोट ओट में छुप जा रही
अब इन्तेहाई का आलम तुझसे और क्या कहूँ
एक्वेरियम की मछलियाँ भी दाना मना कर रही

तो अब ये बता कि मैगज़ीन के पन्ने
हवाओं से फड़फड़ाते रहेंगे क्या।
बगीचे के फूल तेरे स्पर्श के बिना,
खिलने के पहले मुरझाते रहेंगे क्या।
सर्द हवाएँ बन्द खिडकियों से टकरा,
यूँ ही लौट जाते रहेंगे क्या।
ये तन्हाइयों की काली परछाइयाँ
इन पर खिलखिलाते रहेंगे क्या।

या फिर, दोगे इनके मौन सवालों के जवाब
कि ये फिर से मुस्कुरा जाएँ तेरी तरह
नहीं तो कह दो इन्हें भी की पड़े रहे
निर्वात में निष्प्राण, मेरी तरह
         अनंत महेन्द्र
         १३/०७/२०१७

Wednesday 24 May 2017

चलते-चलते

आज फिर मिल गयी चलते-चलते
आँख फिर झुक गयी चलते-चलते
यूँ मेरे सामने से ना गुजरे वो।
साँस न रूक जाए चलते-चलते।

आज फिर मिल गयी चलते-चलते
आँख फिर झुक गयी चलते-चलते
पल भर में मैं जी गया बरसों।
वक्त ही थम गया चलते-चलते।

आज फिर मिल गयी चलते-चलते
आँख फिर झुक गयी चलते-चलते
मेरा हर रोम-रोम गवाह होगा।
कैसे दिल मचल गया चलते चलते।

आज फिर मिल गयी चलते-चलते
आँख फिर झुक गयी चलते-चलते
पर तेरा मुझसे अजनबी बनना।
सब कुछ कह गया चलते चलते।
                   ©अनंत महेन्द्र

Monday 22 May 2017

जद्दोजहद

वापसी वाली ट्रेन में
दिखा एक मोची।
डिब्बे में आया-गया,
दो बार मंडराया,
फिर मेरे बगल वाली सीट में,
बैठ गया संकोची।
पतली काया, साँवला मुख,
हाथों में लकड़ी का बक्सा।
जूते पालिश वाला साजो सामान,
उसने सीट के नीचे रखा।
फटी कमीज, नीली धारी की लुँगी,
और खुद की चट्टी पुरानी।
मस्तक की रेखाओं में उसके,
शायद छिपी थी कोई कहानी।
मैं बैठा उसकी व्यथा-कथा को,
गम्भीरता से पढ़ने को अकुलाया।
तभी अचानक उसने गिनते हुए उंगलियों को,
मन ही मन बुदबुदाया।
गिनी ही थी कुल चार उंगलियाँ,
सर हिला उसने पुनः दुहराया।
अब उसका मलीन सा चेहरा,
मेरी दृष्टि अपनी ओर मोड़ रहा था।
शायद वो मन में दस-दस के चार नोट और,
घर के खर्चों का हिसाब जोड़ रहा  था।
                       © अनंत महेन्द्र

Saturday 20 May 2017

फिर तेरी याद..

रात स्याह है, विरह की आग है,
और नींदों में बनावट है।
कुछ आह है, कुछ आहट है,
कुछ नमकीन सी सुगबुगाहट है।

फिर गगन तन्हा रोशनाई से,
आँगन तेरी अंगड़ाई से।
तममय राह है, व्यर्थ सजावट है,
और नमकीन सी सुगबुगाहाट है।

दीवारें करुण है नमीं से,
दरख़्त ख़ामोश तेरी कमी से।
क्षण अथाह है, वक्त से अदावत है।
और नमकीन सी सुबगुहाट है।
           © अनंत महेन्द्र

Saturday 22 April 2017

चुनौती

अट्टाहास करती तुम,
निरीह सा खड़ा मैं।
तेरे चुनौतियों के समक्ष,
बेसुध सा पड़ा मैं।

पल प्रतिपल हुंकार भरती,
मानस चित्त में टंकार करती।
तुझसे संघर्ष की मुद्रा में,
बस धरा का धरा मैं।
बेसुध सा पड़ा मैं।

पुनः संचित कर आत्मबल,
एकीकृत कर के नभ-तल।
तेरा सामना करने को,
और एक बार अड़ा मैं
बारम्बार खड़ा मैं।
         ©  अनंत महेन्द्र

Friday 10 February 2017

ख़ुश्क मौसम, रात रूमानी

वो खुश्क मौसम था, वो रात रूमानी
थी।
वर्षों छिपा रखा था, वो बात बतानी थी।
कैसे इज़हार कर देता, जो उन्हें थी जल्दी।
चंद लफ्ज़ पड़ते कम, वर्षों की कहानी थी।
वो खुश्क मौसम था, वो रात रूमानी थी।।

खड़े अकेले दोनों,सफेद चादर के शामियाने में।
होते रहे असफल, एक-दूजे को समझाने में।
वक्त की थी पाबंदी, पर यूँ ही सारी रात बितानी थी।
न कह पाया वो बात, जो उसे बतानी थी।
वो खुश्क मौसम था,वो रात रूमानी थी।

विरह की घड़ी टिकटिक चल रही थी।
हृदय में भावनाओं की धारायें उमड़ रही थी।
तभी लाल सुर्ख जोड़े में दौड़ जाना पड़ा उसे।
स्वयं के हृदय को आघात लगा, हृदय छोड़ जाना पड़ा उसे।
फिर अश्रू की धार, और एक अधूरी कहानी थी।
न वो खुश्क मौसम था, अब न रात रूमानी थी।

          अनंत महेन्द्र©®