Friday 15 January 2016

लफ़्ज

कभी कह नहीं पाए
हृदय की भावनाएँ
दबी रह गयी
हृदय ही हृदय में

नयन
झुके रहे
उठ नहीं पाए
तेरे नयनों के समीप

लफ़्ज
निकल नही पाए
काँपते अधरों से
वरना बिखर जाते
इधर-उधर

इल्तजा
बस इतनी सी
है तुझसे
कभी समझ भी जाओ
इन अनकही
लफ्जों को

और दे दो
अर्थ
की परिपूर्ण
हो जाए हर
लफ़्ज..
      अनंत महेन्द्र©®

संचरण

गुमशुम था प्रसुप्त कभी
चहक की कमी सी थी..
आहत था हृदय और
चक्षुओं में नमी भी थी..

वेदना जब भर गया
आत्म-मन प्रखर हुआ..
ग्लानि का भाव त्याग
अंतरविश्वास शिखर हुआ..

जागृत होकर तम से
मृत हृदय स्पंदित हुआ..
चित्त अब उदित हुआ,
नवजीवन सृजित हुआ।।
                                  "अनंत" महेन्द्र ©®