सुनो,बड़े दिनों से कुछ लिखा नहीं,
लिख दूँ क्या, तुम पर ही।
कूची का कलाकार तो नहीं,
कि बैठा रखूँ तुझे, सामने के सोफ़े पर।
पर मन तो चाहता है कि,
कलम मेरी जब-जब चले,
कुछ शब्द लिखे, जब भाव गढ़े।
तब लटें तेरी देख लिखूँ।
तेरे हाथ रहे ठोड़ी पर जब,
सिलवटें देख-देख लिखूँ।
तुम बैठे हुए थक जो जाओगी,
और कितनी देर! पूछ-पूछ उक्ताओगी।
मैं बहाने कर मुस्कुरा जाऊँ।
फिर चंद पंक्तियों की कविता सुनाऊँ।
फिर तुम ज़िद करो जाने की,
और मैं दूसरी कविता बनाने की।
सुनो, बडी देर से कुछ लिखा नहीं,
लिख दूँ क्या, फिर तुम पर ही।
© अनंत महेन्द्र
३१/०७/२०१७
Sunday, 30 July 2017
कलम की चाह
Saturday, 15 July 2017
तेरी याद में
तेरी कमी से ख़ामोश दीवारों दरख़्त
परदे झाँकते अहाते की ओर हर वक्त
कालीन सिलवटों में उलझी ही रही
काँटे घड़ी की अटकी रहती कम्बख़्त
दरवाजे की घंटी जैसे रुष्ठ हो मुँह बना रही
तेरी प्यारी टीवी रिमोट ओट में छुप जा रही
अब इन्तेहाई का आलम तुझसे और क्या कहूँ
एक्वेरियम की मछलियाँ भी दाना मना कर रही
तो अब ये बता कि मैगज़ीन के पन्ने
हवाओं से फड़फड़ाते रहेंगे क्या।
बगीचे के फूल तेरे स्पर्श के बिना,
खिलने के पहले मुरझाते रहेंगे क्या।
सर्द हवाएँ बन्द खिडकियों से टकरा,
यूँ ही लौट जाते रहेंगे क्या।
ये तन्हाइयों की काली परछाइयाँ
इन पर खिलखिलाते रहेंगे क्या।
या फिर, दोगे इनके मौन सवालों के जवाब
कि ये फिर से मुस्कुरा जाएँ तेरी तरह
नहीं तो कह दो इन्हें भी की पड़े रहे
निर्वात में निष्प्राण, मेरी तरह
अनंत महेन्द्र
१३/०७/२०१७
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