Sunday 30 July 2017

कलम की चाह

सुनो,बड़े दिनों से कुछ लिखा नहीं,
लिख दूँ क्या, तुम पर ही।
कूची का कलाकार तो नहीं,
कि बैठा रखूँ तुझे, सामने के सोफ़े पर।
पर मन तो चाहता है कि,
कलम मेरी जब-जब चले,
कुछ शब्द लिखे, जब भाव गढ़े।
तब लटें तेरी देख लिखूँ।
तेरे हाथ रहे ठोड़ी पर जब,
सिलवटें देख-देख लिखूँ।
तुम बैठे हुए थक जो जाओगी,
और कितनी देर! पूछ-पूछ उक्ताओगी।
मैं बहाने कर मुस्कुरा जाऊँ।
फिर चंद पंक्तियों की कविता सुनाऊँ।
फिर तुम ज़िद करो जाने की,
और मैं दूसरी कविता बनाने की।
सुनो, बडी देर से कुछ लिखा नहीं,
लिख दूँ क्या, फिर तुम पर ही।
                   © अनंत महेन्द्र
                       ३१/०७/२०१७

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