Saturday 15 July 2017

तेरी याद में

तेरी कमी से ख़ामोश दीवारों दरख़्त
परदे झाँकते अहाते की ओर हर वक्त
कालीन सिलवटों में उलझी ही रही
काँटे घड़ी की अटकी रहती कम्बख़्त

दरवाजे की घंटी जैसे रुष्ठ हो मुँह बना रही
तेरी प्यारी टीवी रिमोट ओट में छुप जा रही
अब इन्तेहाई का आलम तुझसे और क्या कहूँ
एक्वेरियम की मछलियाँ भी दाना मना कर रही

तो अब ये बता कि मैगज़ीन के पन्ने
हवाओं से फड़फड़ाते रहेंगे क्या।
बगीचे के फूल तेरे स्पर्श के बिना,
खिलने के पहले मुरझाते रहेंगे क्या।
सर्द हवाएँ बन्द खिडकियों से टकरा,
यूँ ही लौट जाते रहेंगे क्या।
ये तन्हाइयों की काली परछाइयाँ
इन पर खिलखिलाते रहेंगे क्या।

या फिर, दोगे इनके मौन सवालों के जवाब
कि ये फिर से मुस्कुरा जाएँ तेरी तरह
नहीं तो कह दो इन्हें भी की पड़े रहे
निर्वात में निष्प्राण, मेरी तरह
         अनंत महेन्द्र
         १३/०७/२०१७

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