तेरी कमी से ख़ामोश दीवारों दरख़्त
परदे झाँकते अहाते की ओर हर वक्त
कालीन सिलवटों में उलझी ही रही
काँटे घड़ी की अटकी रहती कम्बख़्त
दरवाजे की घंटी जैसे रुष्ठ हो मुँह बना रही
तेरी प्यारी टीवी रिमोट ओट में छुप जा रही
अब इन्तेहाई का आलम तुझसे और क्या कहूँ
एक्वेरियम की मछलियाँ भी दाना मना कर रही
तो अब ये बता कि मैगज़ीन के पन्ने
हवाओं से फड़फड़ाते रहेंगे क्या।
बगीचे के फूल तेरे स्पर्श के बिना,
खिलने के पहले मुरझाते रहेंगे क्या।
सर्द हवाएँ बन्द खिडकियों से टकरा,
यूँ ही लौट जाते रहेंगे क्या।
ये तन्हाइयों की काली परछाइयाँ
इन पर खिलखिलाते रहेंगे क्या।
या फिर, दोगे इनके मौन सवालों के जवाब
कि ये फिर से मुस्कुरा जाएँ तेरी तरह
नहीं तो कह दो इन्हें भी की पड़े रहे
निर्वात में निष्प्राण, मेरी तरह
अनंत महेन्द्र
१३/०७/२०१७
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