Tuesday, 1 August 2017

वृद्धाश्रम

जो कभी तुझे उंगलियाँ पकड़कर,
   सारी राह चलाता था।
तेरी छोटी-बड़ी ख्वाइशों के लिए,
   पूरे माह कमाता था।
जो खुद कभी भूखा सो जाता पर,
  तेरे टॉफियाँ लाता था।
तेरी एक हँसी मुस्कान देखने,
थककर भी घर वापस आता था।

तेरे बीसियों एक से प्रश्नों के,
   जवाब वो हर बार देते थे।
तेरी हर जिद पूरी करने को,
   सर्वस्व वार देते थे।
जिसके हर एक शब्द में,
    कोई न कोई सबक होती है।
आज उनकी नेक सलाह भी,
    तुम्हें बकबक लगती है।

आज जब तुम खुद बड़े हो गए,
  पाँव पर अपने खड़े हो गए।
टूटी झोपड़ी अब मकान हो गया,
   पैसों पे तुम्हें अभिमान हो गया।
पिता के ईलाज के पैसों को,
    कहते हो नुकसान हो गया।

दो रोटी ही तो ज्यादा लगता है।
अरे वो तेरे बच्चों का दादा लगता है।
थोड़ा ही सही तुम ध्यान धरो।
उनके अनुभवों का सम्मान करो।
बस इतना ही तुम कर्म करो।
कि वृद्धाश्रम न फोन करो।
                   ©   अनंत महेन्द्र

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