वापसी वाली ट्रेन में
दिखा एक मोची।
डिब्बे में आया-गया,
दो बार मंडराया,
फिर मेरे बगल वाली सीट में,
बैठ गया संकोची।
पतली काया, साँवला मुख,
हाथों में लकड़ी का बक्सा।
जूते पालिश वाला साजो सामान,
उसने सीट के नीचे रखा।
फटी कमीज, नीली धारी की लुँगी,
और खुद की चट्टी पुरानी।
मस्तक की रेखाओं में उसके,
शायद छिपी थी कोई कहानी।
मैं बैठा उसकी व्यथा-कथा को,
गम्भीरता से पढ़ने को अकुलाया।
तभी अचानक उसने गिनते हुए उंगलियों को,
मन ही मन बुदबुदाया।
गिनी ही थी कुल चार उंगलियाँ,
सर हिला उसने पुनः दुहराया।
अब उसका मलीन सा चेहरा,
मेरी दृष्टि अपनी ओर मोड़ रहा था।
शायद वो मन में दस-दस के चार नोट और,
घर के खर्चों का हिसाब जोड़ रहा था।
© अनंत महेन्द्र
Monday 22 May 2017
जद्दोजहद
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