Friday, 30 August 2019

ग़ज़ल

रंग सारे फिज़ा के तुम्हीं से बने, ये महावर की लाली कहे न कहे।
साँझ ढल कर बताती है नाराज़गी, चेहरे की उदासी कहे न कहे।

रंग स्याही का छूकर ही मज़मून तुम, पढ़ सके क्या जो माँ कह न पाई कभी।
जज्ब बातें दिलों में दबाए रही, उनको कागज की चिट्ठी कहे न कहे।

नींव में थीं जो ईंटें दरकने लगीं, पर इमारत बुलन्दी को छूती रही।
कश्तियाँ तेज लहरों में खेता रहा, दर्द छालों का माझी कहे न कहे।

लड़कियाँ हैं हया की चुनर ओढ़ती, उनके चेहरे में लिक्खा रहेगा ग़मी।
भाँप लेना पिता तुम मुसीबत ख़ुदी, ख़ुद से आकर के बेटी कहे न कहे।
                                           ✍️  अनंत महेन्द्र

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