Tuesday, 13 December 2016

क्षुदा की आग

बड़ी लम्बी फेहरिस्त है
इंसानी कामयाबी की
कोटि-कोटि अरबों के धन
चाँद में पहुँच बैठे हैं जन
मीलों दूर बैठे बतियाए
बस छोटे यंत्र कान लगाए

हृदय, गुर्दे तक बदले जाते
मरने वाले बचा लिए जाते
फैली कीर्ति दसों दिशा में
खूब करी तरक्की इंसा ने
पर इंसा तभी इंसा कहलाते
आग प्रत्येक क्षुदा की बुझा पाते
                     अनंत महेन्द्र ©

Thursday, 27 October 2016

कर गयी चोट, बस एक नजर दोस्तों

कभी सोचा न था, जिऊँगा मोहब्बत को।
मेरा दिल भी पा लेगा, किसी की सोहबत को
पर हुआ एक दिन, ऐसा गजब दोस्तों।
कर गयी चोट, बस एक नजर दोस्तों।

क्या बताऊँ, उन नजरों का कैसा था जादू।
होश रहा न खुद की, दिल हुआ था बेकाबू।
हाय! हम पर हुआ था, क्या असर दोस्तों।
जब कर गयी चोट, बस एक नजर दोस्तों।

लिख डाली कितनी शायरियाँ, उनकी याद में।
जब उन्होंने कहा था मिलूँगी, कुछ दिन बाद में।
फिर एक-एक पल लगने लगा था, कहर दोस्तों।
जब कर गयी चोट, बस एक नजर दोस्तों।

अब तो "अनंत" बस उनका एहसास ही बाकि है।
मिले न मिले वो, जीने को उनकी याद काफी है।
क्या करूँ काटने को दौड़ता है, शहर दोस्तों।
गहरी कर गयी चोट, बस वो नजर दोस्तों।।
                               "अनंत" महेन्द्र
                               २७/१०/२०१६

Saturday, 22 October 2016

रिश्ते

संबंधों की नींव पर
रिश्ते कर देते हो खड़े

स्व का अभिमान जब
दिखता है कंगूरे पर पड़े

थाह की टोह लगने लगती
गहराई कम जाती है

अंतस मन के दीवारों पर
रिश्तों की बेल सड़ जाती है
         
           © "अनंत" महेन्द्र
                १०.१०.२०१६

नारी स्वरूप को समर्पित

चित्त दीप्त, हृदय विकल
मृगमयी दृग,अधर कोंपल
अगाध उदधि अश्रुपूरित
मन ज्वाला सी उद्विलित
सारगर्भित अपरिभाषित
सदैव दात्री न्यून अभिलाषित
माँ, भगिनी, भार्या स्वरूप
हे नारी! नमन "अनंत" रूप
              © अनंत महेन्द्र
                २१.१०.२०१६

Thursday, 9 June 2016

तन्हाई

कहाँ गए
वो पल कहाँ गए
जिनमें महक थी
तेरी मौजूदगी की

कहाँ गए
वो जज्बात कहाँ गए
जिनमें भाव थे,
उद्विग्नता थी

कहाँ गए
वो एहसास कहाँ गए
जिनमें जिंदगी थी,
संजीदगी थी

अब तो बस
आडम्बर है
मुखौटे हैं
चहुँ ओर

और है सर्वव्याप्त
एक खालीपन
सूनापन,
कहाँ गए
वो मंजर-ए-जमात कहाँ गए..
         "अनंत"

Tuesday, 1 March 2016

हलचल

आज भगदड़ है, मन में
हलचल है..

विचारों में टकराव, स्वयं में
नभतल है..

उद्विग्नता बढ़ चली,
रुग्णता चढ़ चली,
निराशा का चीत्कार
हर पल है..

आज भगदड़ है, मन में
हलचल है..!
          "अनंत" महेन्द्र ©®

Friday, 15 January 2016

लफ़्ज

कभी कह नहीं पाए
हृदय की भावनाएँ
दबी रह गयी
हृदय ही हृदय में

नयन
झुके रहे
उठ नहीं पाए
तेरे नयनों के समीप

लफ़्ज
निकल नही पाए
काँपते अधरों से
वरना बिखर जाते
इधर-उधर

इल्तजा
बस इतनी सी
है तुझसे
कभी समझ भी जाओ
इन अनकही
लफ्जों को

और दे दो
अर्थ
की परिपूर्ण
हो जाए हर
लफ़्ज..
      अनंत महेन्द्र©®

संचरण

गुमशुम था प्रसुप्त कभी
चहक की कमी सी थी..
आहत था हृदय और
चक्षुओं में नमी भी थी..

वेदना जब भर गया
आत्म-मन प्रखर हुआ..
ग्लानि का भाव त्याग
अंतरविश्वास शिखर हुआ..

जागृत होकर तम से
मृत हृदय स्पंदित हुआ..
चित्त अब उदित हुआ,
नवजीवन सृजित हुआ।।
                                  "अनंत" महेन्द्र ©®